दोस्तों ,
संगीत गीत, वाद्य व नृत्य इन तीनों कलाओं का समावेश ‘संगीत’ इस शब्द में होता है । वस्तुतः यह तीनों कला स्वतन्त्र हैं, किन्तु गीत प्रधान होने के कारण तीनों का समावेश ‘संगीत’ में किया जाता है।
दक्षिण व उत्तर पद्धति । अपने देश में संगीत की दो पद्धतियां हैं; एक दक्षिण पद्धति व दूसरी उत्तर पद्धति । मद्रास प्रान्त व मैसूर आदि में जो पद्धति प्रचलित है, उसे दक्षिगा अथवा कर्नाटकी पद्धति कहा जाता है। इनके अतिरिक्त देश के बाकी सभी स्थानों में जो पद्धति चालू है, उसे उत्तरीय या हिन्दुस्थानी पद्धति कहते हैं।
संगीत का सम्बन्ध ध्वनि ( आवाज़ ) से है । ध्वनि के दो प्रकार हैं
(१) संगीतोपयोगी
(२) तद्व्यतिरिक्त ।
पहिले को तो नाद कहा जायगा.
स्वर हमारे देश के संगीतशास्त्रकार प्राचीन समय से ही संगीतोपयोगी मुख्य नाद एक सप्तक में २२ मानते चले आ रहे हैं। जिनको शास्त्रों में .
“श्रति” कहा गया है । इन २२ नादों में से ही गायन के लिये उपयोगी सात स्वरों की उत्पत्ति हुई है। इन नादों को एक के बाद दूसरा क्रमशः ऊंचा मानने का व्यवहार है ।
गायन उपयोगी मुख्य स्वर सात हैं, यह पहले बताया ही जा चुका है। इनके सर्वमान्य नाम क्रमशः षड़ज, रिषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निपाद हैं। जिनको व्यवहार में ‘सा रे ग म प ध नि” इन संक्षिप्त नामों से पुकारते हैं।
सप्तक ऊपर बताये हुए मुख्य सात स्वर क्रमानुसार एक के बाद एक पंक्तिबद्ध लिखने, रखने या गाने से ‘सप्तक’ का रूप बनता है। इस सप्तक को हिन्दुस्थानी
संगीत पद्धति में ‘बिलावल सप्तक’ कहते हैं तथा इस सप्तक के सात स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं।
स्थान नाद की ऊँचाई-नीचाई के अनुरूप उसके मन्द्र, मध्य व तार ऐसे तीन भेद बताये गये हैं, इनको नाद स्थान कहते हैं। इन प्रत्येक स्थानों में एक-एक स्वर सप्तक मानकर-मन्द्र स्वर सप्तक, मध्य स्वर सप्तक, तथा तार स्वर सप्तक ऐसो तीन सप्तकें बनती हैं। अपनी साधारण आवाज में मनुष्य जैसे बातें करता है, उस आवाज की गणना मध्य स्वर सप्तक में होती है।